मुख्यमंत्री काफी झल्लाये-झल्लाये से रहते हैं। भला उनकी बेटी मने एक
मुख्यमंत्री की बेटी भाग जाए, किसी ऐरे-गैरे छौड़े के साथ तो फिर दूसरों को
क्या मुँह दिखाएँगे? उन्हें ललिया पर इतना गुस्सा आता है कि अगर मिल जाए तो
क्या न कर डालें! परेशान करने के लिए क्या इतना ही कम था कि उन पर विरोधी
पक्ष ने आय से ज्यादा संपत्ति रखने की अफवाह उड़ा दी और सीबीआई वालों का छापा
भी पड़ गया। अब एक चीफ मिनिस्टर अपनी कुर्सी पर नहीं, जेल की सलाखों के पीछे
है। यह सब सिंबोंगा के नाराज होने का ही परिणाम हैं। पत्नी ने बलि देने की
मनौती माँगी है। एक तरफ जॉन गुरू, दूसरी तरफ मंदिर के पुजारी... दोनों की राय
एक है कि बलि के बाद ही इस अभिशाप से मुक्ति मिल पाएगी। क्या-क्या नहीं
सुनना पड़ता है जो पंडित जी देखते दंडवत में बिछ जाया करते वे ही अब ताने कसते
हैं। परसों मिलने को आए तो बिना किसी संदर्भ के जहर उगलने लगे कि अरे राज काज
तो बराह्मण, राजपूतों का काम है। अब आपके जैसे लोग भी राजकाज करने लगेंगे तो
देवता कुपित नहीं होंगे। चारों वर्णों को अपने-अपने वर्ण के अनुसार काम करना
चाहिए। मने कि बराह्मण गुरू होकर राजपूत राज करेगा बनिया व्यापार और शूद्र
सेवा। और ज-है-से ही आप तो चारों वर्णों से भी बाहर ही हुए। बुरा मत मानिएगा
जजमान। गलत कहें तो शूली पे चढ़वा दीजिएगा। जब यह सब वर्णाश्रम धर्म के
विरूद्ध जाने का ही कुफल है। फिर वे जॉन गुरू की ओर मुड़े, 'बोलिए हम गलत कह
रहे हैं?' जॉन गुरू बोले - 'अरे नहीं महाराज। आप कैसे गलत बोल सकते हैं। समाज
के सिरमौर हैं आप। गलती निश्चित हुई है। नहीं तो बेटी का वो हाल होता? और
सीबीआई का ये मजाल कि... खैर, बलि संपन्न हो जाए तो ये संकट के बादल अपने आप
छंट जाएँगें।'
''लेकिन बलि के लिए बकरे कहाँ से आएँगें। महाराज हम तो यहाँ पड़े हुए हैं।'' -
मुख्यमंत्री ने कहा।
''अरे मरा हाथी भी सवा लाख का होता है।''- पंडित जी ने कहा, ''आपकी रानी
साहिबा, माने कि ललिया की माई चाहे तो सारे बकरे को लाकर हाजिर कर देंवे। यह
पुण्य कार्य जितनी जल्दी हो उतना ही भला है।''
वे चले गए, मुख्यमंत्री पिंजरें में बंद भेड़िये की तरह चहल-कदमी करते रहे।
तभी रानी साहिबा आती दिखीं। उनके चेहरे पर आनंद और अपमान के मिले-जुले भाव थे,
''कुछ खबर है, ललिया को बेटा हुआ है।''
''तो नाचो न साड़ी खोलकर'', चीफ मिनिस्टर भड़कते हुए कहा कि ''उस सत्यनाशिनी
का नाम भी मत लो, वो मेरे लिए मर चुकी है। नाक कटा कर रख दिया है।'' रानी
साहिबा सिटपिटा गई, कुछ बोलते न बनी। वे बकर-बकर पति का मुँह देखती रही। जो
क्रोध और चिंता में मनहूस-सा लग रहा था, ''सुनो, कम से कम एक हजार बकरे की बलि
देनी होगी।''
''एक हजार...?''
''हाँ, कम से कम एक हजार। पंडित जी और जॉन गुरू दोनों का विचार है कि एकमात्र
यही रास्ता है जिससे इस अभिशाप से मुक्ति मिल पाएगी। एक बार छूट कर आने दो
फिर हम सबको देख लेंगे कि कौन-कौन हमारे पीछे लगा हुआ था, ललिया और अपने दामाद
कमलेश्वरी को भी पाताल से खोज निकालेंगे और सरे आम सूली पर चढ़ाएँगे।''
रानी ने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला लेकिन बोल न पाई।
इधर मुख्यमंत्री के एक पट्ठे ने हामिद मियाँ को हुक्म दिया - ''हमीद
मियाँ... कम से कम एक हजार बकरे चाहिए पूजा के लिए।''
''लेकिन हुजूर एक हजार तो बहुत ज्यादा है वो भी बकरा ही सिर्फ। कहाँ से
लाएँगें...?''
''अभी चार दिन बाकी है पूर्ण चाँद होने में। एक सिरे से कसते जाओ, चाहे बकरा
हो या बकरी। हमें किसी भी हालत में हजार चाहिए।'' हमीद मियाँ हुक्म का पालन
करने को निकल पड़े।
ललिया को देखकर भला कोई कह सकता है कि मुख्यमंत्री की बेटी है। जिस बेटी को
राजमहल नसीब होना था उसने एक झोपड़ी में प्रसव किया। पिता की बात मानती तो
राजमहल में होती। स्तन में दूध नहीं आ रहा है। पिता की बात मानती तो गाय,
भैंस, बकरी यहाँ तक कि औरतों की लाइन लगी होती दूध पिलाने के लिए। बड़ी
मुश्किल से विकल्प के रूप में एक बकरी खरीद कर ले लाया है उसका पति
कमलेश्वरी। प्रसूति गृह में गंदे लेंदरा, चिकटाये पोतड़े और भिनकती मक्खियाँ
व गंदगी का आलम और उसके बीच ललिया का पुत्र पल रहा है। अकल्पनीय है यह सब।
ललिया अपने शिशु का चेहरा देखकर प्रसन्न है। हष्ट पुष्ट बच्चा का वजन तीन
किलो आठ सौ ग्राम का है। दूसरी ओर वह अपने स्तन को कोसती हुए कहती है 'पत्थर
हो गया है, दूध के बूँदें नहीं है।' वह बकरी का दूध रूई से शिशु के मुँह में
डाल रही है। ''सब नसीब का खेल है, जॉन गुरू मेरे बच्चे को किसी की नजर न
लगे।'' बाप ने उसे ढूँढने की कोई कसर नहीं छोड़ी। यह तो अच्छा हुआ कि वह अभी
जेल में है। छी अपने बाप के बारे में क्या सोचती है - ''हे सिंमोंगा देव…
मेरे बाप को अशुभ छायाओं से बचाना और उसे सद्बुद्धि देना कि उसकी बेटी ने कोई
पाप नहीं किया है और न बाप की मूंछ नीची की है। हमारे यहाँ भगाकर शादियाँ होती
रही हैं।''
एक बार सब ठीक-ठाक हो जाए तो बाप के पास जरूर जाऊंगी अपने इस
नन्हें-मुन्नों को लेकर। उनके कदमों पर रख दूँगी। कहूँगी, ''जो सजा देनी हो
मुझे दो… मैं आ गई हूँ। कैसे नहीं पिघलेगा माँ-बाप का कलेजा। चीफ मिनिस्टर
हुए तो क्या हुआ, हैं तो बाप ही न...।''
बाहर तनिक गरम, तनिक ठंडी हवा के हल्के-हल्के झंकोरों में नए-नए किसलय हिल
रहे थे। बसंत था, महुए चू रहे थे। उसकी गंध हवा के झोकों से उसे छू जाती थी।
उसे उन बीते दिनों की याद आ जाती है, जब वह एक मुख्यमंत्री की बेटी नहीं,
गाँव की एक बालिका थी। उजले-उजले महुए के फूलों के ढ़ेर लगा देती थी। पिता के
मुख्यमंत्री बन जाने के बाद यह सब छूट गया। प्राकृतिक जंगल से कंक्रीट के
जंगल में आना पड़ा, फिर स्कूल ड्रेस, स्कूल बस, टीचर्स, गवर्नेंस और क्या
क्या नहीं... उसे लगा कि बीच का समय उसका वनवास था, अब वह पुनः प्रकृति के
गोद में लौट आई है, अपने लोगों के बीच। यह बच्चा जरा संभल जाए तो वह और
कमलेश्वरी दोनों आदिवासियों के विकास के लिए कार्य करेंगे, पिता की तरह कोई
ढोंग नहीं।
सुबह का 11 बज रहा होगा, लगा कि कोई आँधी-सी आयी, हालाँकि न कोई पत्ता हिला,
न कोई डाली टूटी और न ही धूल उड़ी। उसने इतिहास की पुस्तकों में हूण, चंगेज
खाँ, नादिर शाह आदि के आक्रमण के बारे में पढ़ा था। लगा कुछ ऐसी ही अफरा-तफरी
है एक बर्बर-सी भागम-भाग।
''हमीद एक भी बकरी-बकरा नहीं छूटना चाहिए, समझे।'' कसाई जैसी आवाज।
तभी उसके अपनी बकरी और पाठा दोनों के मिमियाने की आवाज सुनाई पड़ी।
गिरते-पड़ते वह उठ खड़ी हुई ''अरे क्या कर रहे हो...?''
ले जा रहे हैं और क्या?
''काहे?''
''हुकूम है और क्या... काहे कर रही है।''
वह गिड़गिड़ाती रह गई कि इसी बकरी के दूध पर अपना बच्चा पल रहा है। अभी कै
दिन का बच्चा है, उसकी छाती में दूध नहीं होता। बकरी के न रहने पर वह पीएगा
क्या…।
''सो हम नहीं जानते हैं... हुकूम, हुकूम होता है।'' उन्होंने एक न सुनी।
बकरी चिल्लाती रही।
पाठा भी चिल्लाता रहा।
बच्चा चिल्लाता रहा।
ललिया चिल्लाती रही।
लेकिन वे ले गए। ठीक पूरे चाँद के दिन बलि संपन्न हो गई। फिजा में निर्दोष
बकरियों की चीख भर गई थी। उधर उसी दिन दूध के अभाव में ललिया के बच्चे ने दम
तोड़ दिया।
तब से पूरे इलाके में एक अजीब-सा करूण चीत्कार सुनाई पड़ती है। इस एक
चीत्कार में पाठे की चीत्कार है, बकरे की चीत्कार है, नवजात शिशु की
चीत्कार है और ललिया की भी। लोग एक-दूसरे से बूझना चाहते हैं कि ऐसी चीत्कार
न कभी देखी, न सुनी। यह कैसी चीत्कार है, कौन रो रहा है- करूण स्वर में।
बलि के प्रताप से मुख्यमंत्री और विरोधी दल में समझौता हो गया है।
मुख्यमंत्री निर्दोष छूट गए हैं। नगाड़े बज रहे हैं, मादल बज रहे हैं। तुरूही
बज रही है। बाँसुरी बज रही है। लोग रंग, अबीर लगाकर नाच रहे हैं। लेकिन ये
आवाज सहसा मंद पड़ जाती है और वह करूण चीत्कारें, सबके ऊपर छाने लगती हैं।
लोग एक-दूसरे का मुँह ताकते हैं। किस जानवर की चीत्कारें हैं - सियारिन की,
भेडि़ए की, बाघिन की... किसकी? वे कैसे समझ पाते। वह अकेली चीत्कार नहीं थी।
उसमें हजारों हजार पाठों की चीत्कार थी, बकरियों की चीत्कारें थीं, शिशुओं
की चीत्कारें थीं और ललिया जैसी माताओं की चीत्कारें भी...?